यह सन्ध्या फूली सजीली!
आज बुलाती है विहगों को नीड़े बिन बोले;
रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले;
अनिल ने मधु-मदिरा पी ली!
मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना;
पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना;
आज सुनहली रेणु मली सस्मित गोधूली ने,
रजनीगन्धा आँज रही है नयनों में सोना!
हुई विद्रुम वेला नीली!
मेरी चितवन खींच गगन के कितने रँग लाई!
शतरंगों के इन्द्रधनुष सी स्मृति उर में छाई;
राग-विरागों के दोनों तट मेरे प्राणों में,
श्वासें छूतीं एक, अपर निश्वासें छू आई!
अधर सस्मित पलकें गीली!
भाती तम की मुक्ति नहीं प्रिय रागों का बन्धन;
उड़ उड़ कर फिर लौट रहे हैं लघु उर में स्पन्दन;
क्या जीने का मर्म यहाँ मिट मिट सबने जाना?
तर जाने को मृत्यु कहा क्यों बहने को जीवन?
सृष्टि मिटने पर गर्वीली!