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सरोकार / चंद्र रेखा ढडवाल

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सरोकार

भव्यताओं के ऊपर से
उड़कर आते गिद्ध
मांस गंध से आकर्षित हो
तुम्हारी छत पर समेटते पंख
चोंच की धार परखते डुबकी लगाते
आनंद सरोवरों में
और पसार देते उजले पंख आंगन की सुखद धूप में
गरमाती देह की ऊँघती चेतना में
एकाकार हो जाते संगीत और चीत्कार
प्रार्थनाएँ पर नहीं रुकतीं
देव-प्रतिमाएँ सजीव हो-हो नहीं देतीं श्राप
सुसंस्कृति अजगर के विशाल मिख-सी
खुल जाती सबकुछ के स्वीकार के लिए
जीवों के योगक्षेम नि:शब्द वहन करती
यहीं पर अपने होने को साधती फुंकारती है कभी
हुसैन की सरस्वती पर
तो बरसों पुराने अनाम किसी शिल्पी की
कलात्मक कांस्य-प्रतिमा पर कभी.