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ब्लैकमेलर-9 / वेणु गोपाल

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हत्या की कोशिश नाकाम नहीं होनी चाहिए। वह
बच गया तो दुगुना खूंखार हो जाएगा। तो
जरूरी था कि मैं हथियारों की जाँच कर लेता। और
कार्रवाई के लिए मुनासिब हथियार चुन लेता। मैंने

अपने पास के हथियारों पर नज़र डाली। कलम
और कविताएँ। बस ये ही तो!
कलम तो उससे टकराएगी नहीं कि चूर-चूर
हो जाएगी। कविताओं
को तो वह फाड़-फूड़कर हवा में उड़ा देगा।
तब?

और मरे घोड़ों की हड्डियों की गति के लिए
टटोलता
मैं छटपटा रहा हूँ। कविताओं में। और
सुनते और पढ़ते लोगों की खुशी
मुझे कहीं नहीं छूती।


मैं उसकी गिरफ़्त में हूँ। और वह
आख़िरी जवाब मांग रहा है। और मैंने
अभी पहली किश्त भी नहीं चुकाई। कि कविता
मैं अब भी बराबर लिख रहा हूँ। लिखे जा रहा हूँ।

तो क्या वह सचमुच ही यह रहस्य उजागर
कर देगा कि नदी का बहाव नकली है, कि दूब का
हरापन सिर्फ़ ऊपरी पर्त है, कि कविताएँ
एक अनिवार्य हाजत से छुटकारा पाने का
स्वाभाविक नतीजा है, कि साहस की क्रांति की--
विद्रोह की चमड़ी खुरचने पर अक्सर ही
बुज़दिली, ख़ुदगर्ज़ी और टुच्चई से मुलाकात
होती है। क्या वह
किसी को भी नहीं सोचने देगा कि मेरे क़द के
बौने रह जाने के पीछे मेरे घर की छत, दीवारों
और दरवाज़ों की अच्छी-खासी भूमिका रही है?

ऎसी हालत में भी जो होगा, जानता हूँ। याने मैं
क्या करूंगा, यह तय है। समझौते की कहीं कोई
गुंजाइश नहीं। इन हाथों को उसके ख़ून से रंगना
ही एकमात्र नियति है। अभिशप्त हूँ मैं हत्यारा
बनने को। लेकिन अभी तो, इस पल तो
मैं यह कविता लिख रहा हूँ। और वह
निब बना हुआ है। अगले ही पल
मुझ से वे ही जाने-पहचाने सवाल पूछने वाला है।
लेकिन

और लेकिन-- और लेकिन

जितनी कविता अनिवार्य और स्वाभाविक है
मेरी ज़िन्दगी में
उतना का उतना ही-- यह ब्लैकमेलर भी तो है
रत्ती भर भी कम नहीं।