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चाह / आहत युग / महेन्द्र भटनागर
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जीवन अबाधित बहे,
जय की कहानी कहे !
आशीष-तरु-छाँह में
जन-जन सतत सुख लहे !
दिन-रात मन-बीन पर
प्रिय गीत गाता रहे !
मधु-स्वप्न देखे सदा,
झूमे हँसे गहगहे !
मायूस कोई न हो,
लगते रहे कहकहे !
हर व्यक्ति कुन्दन बने,
अन्तर-अगन में दहे !
अज्ञात प्रारब्ध का
हर वार हँस कर सहे !