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अंत / मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर

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समर —

अब कहाँ है ?

सफ़र —

अब कहाँ है ?


थम गया सब

बहता उछलता नदी-जल तरल,

जम गया सब —

नसों में रुधिर की तरह !


दर्द से

देह की हड्डियाँ सब

चटखती लगातार,

अब कौन

इन्हें दबाए

टूटती आख़िरी साँस तक ?

अँधेरे-अँधेरे घिरे

जब न कोई

पास तक !


लहर अब कहाँ

एक ठहराव है,

ज़िन्दगी अब —

शिथिल तार;

बिखराव है !