भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंत / मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समर —
अब कहाँ है?
सफ़र —
अब कहाँ है?

थम गया सब
बहता उछलता नदी-जल तरल,
जम गया सब —
नसों में रुधिर की तरह!

दर्द से
देह की हड्डियाँ सब
चटखती लगातार,
अब कौन
इन्हें दबाए
टूटती आख़िरी साँस तक?
अँधेरे-अँधेरे घिरे
जब न कोई
पास तक!

लहर अब कहाँ
एक ठहराव है,
ज़िन्दगी अब —
शिथिल तार;
बिखराव है!