भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कह नहीं सकता / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:59, 9 जुलाई 2007 का अवतरण
कह नहीं सकता
मुझ को उदासी क्यों पकड़ लिया करती है
अपनी राह आता हूँ जाता हूँ
कोई भी लगाव अलगाव नहीं
और सिलसिला जो चल निकला है
चलता ही जाता है
फिर भी मन मेरा मौन साध साध लेता है
कल देखी
बरसाती नदी
वह पेटी में सिकुड़ सिकुड़ गई थी
वह प्रवाह कहाँ था
जिस से भय लगता था
अब जल को घेर कर पौधे उग आए थे
कहीं कहीं घास और कहीं कहीं काई थी
जो कुछ भी पानी था ठहरा था
मैं ने जाते सूरज को देख अलविदा कहा
कहते हैं चुप रहना अच्छा है
अपनी चुप छोड़ कर हर कोई कहता है