समर्पण ओढे
किनारे पर
मैं
करती रही
इंतजार!
तुम भी आते रहे
जब जी किया,
मुझे भीगाते रहे,
और फिर
बेपरवाह , बेफिक्र
जाते रहे …..बार- बार
मुझे
सुखाता रहा
मेरा ही दर्प,
और मैं फिसलती गयी
सुनहरे समय की मुठ्ठियों से
देखो!
कैसे बिखर गया है
तुम्हारे अथाह किनारों पर
मेरा कण कण
रेत बनकर...