रचनाकार: लावण्या शाह
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बीती रात का सपना, छिपा ही रह जाये,
तो वो, सपना, सपना नहीं रहता है!
पायलिया के घुँघरू, ना बाजें तो,
फिर,पायल पायल कहाँ रहती है?
बिन पँखों की उडान आखिरी हद तक,
साँस रोक कर देखे वो दिवा-स्वप्न भी,
पल भर मेँ लगाये पाँख, पखेरु से उड़,
ना जाने कब, ओझल हो जाते हैँ !
मन का क्या है? सारा आकाश कम है
भावों का उठना, हर लहर लहर पर,
शशि की तम पर पड़ती, आभा है !
रुपहली रातो में खिलती कलियाँ जो,
भाव विभोर, स्निग्धता लिये उर मेँ,
कोमल किसलय के आलिंगन को,
रोक सहज निज प्रणयन उन्मन से
वीत राग उषा का लिये सजातीँ,
पल पल में, खिलती उपवन मेँ !
मैं, मन के नयनो से उन्हेँ देखती,
राग अहीरो के सुनती, मधुवन मेँ,
वन ज्योत्सना, मनोकामिनी बनी,
गहराते संवेदन, उर, प्रतिक्षण मेँ !
सुर राग ताल लय के बँधन जो,
फैल रहे हैँ, चार याम, ज्योति कण से,
फिर उठा सुराही पात्र, पिलाये हाला,
कोई आकर, सूने जीवन पथ मेँ !
यह अमृत धार बहे, रसधार, यूँ ही,
कहती मैं यह जग जादू घर है !
रात दिवा के द्युती मण्डल की,
यह अक्षुण्ण अमित सीमा रेखा है