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पछाड़ते-पछाड़ते / केदारनाथ अग्रवाल
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पछाड़ते-पछाड़ते
सफेद हो गई जिंदगी
जैसे कफन।
मौत का मसान
अब मुझे बुलाता है
नदी किनारे।
फूला खड़ा है
इस उम्र में, अब भी,
राह रोके
प्यार का पुष्पित पौधा।
न जाऊँगा अब
मसान जगाने,
जिऊँगा जिंदगी अभी और अभी और
जानदार पौधे के तले
रंग-रूप को लगाए गले।
रचनाकाल: १०-०५-१९८०