Last modified on 21 दिसम्बर 2010, at 00:58

हर तरफ़ इक सनसनी है / कुमार अनिल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:58, 21 दिसम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हर तरफ़ इक सनसनी है इस शहर में
मौत की चादर तनी है इस शहर में

दोस्तों के ही गले काटे गए हैं
ईद कुछ ऐसे मनी है इस शहर में

जो सितम की बात करते हैं, उन्ही की
आस्तीं खूँ में सनी है इस शहर में

हर गली बारूद ढोती हैं हवाएँ
हर सड़क खंजर बनी है इस शहर में

कितने मासूमों के घर फूँके गए हैं
तब हुई कुछ रौशनी है इस शहर में

रात फिर आने को है ये सोचकर ही
शाम कितनी अनमनी है इस शहर में

राम जाने रंग कैसा धूप का हो
रक्त रंजित चाँदनी है इस शहर में

वहम होता है 'अनिल ' शमशान का अब
ख़ामुशी इतनी घनी है इस शहर में