वह कल तक
चेजे पर जाता था
और बन रही हवेलियों के नीचे
सो जाता हो कर बेफिक्र
वह करने जाता था मजदूरी
किसी मिल में
पर सोता था अपनी नींद
या फिर जागता अपनी नींद
आज वही खड़ा था
मेरे सामने ताने मुट्ठियां
कारण मैंने लिखी थी
एक कविता उस के लिए
उस ने पढ़ी मेरी कविता
और आ पहुंचा लड़ने
तान कर अपनी मुट्ठियां
जो कल तक नहीं जानता था
नित्य नई बन रही हवेलियों
और मिलों की ऊंची होती
चिमनियों के रहस्य
कल तक वह
शायद जानता नहीं था
अपने के पसीने की कीमत
वर्ना कब का वह आ चुका होता
मेरे सामने
खुली सड़क पर
तान कर मुट्ठी
वह कविता से अधिक मुझे
और मुझ से अधिक कविता को
गहरे तक जानता है !
अनुवाद : नीरज दइया
न्याय
कव्वै को कव्वा
सारस को सारस ही रहने दीजिए
चाहे किसी का प्रियतम आए
महलों में या फिर किसी का बीर
पधारे घर को ।
इन पर होना क्रोधित
या जाहिर करना खुशी
दोनों ही बातों का अर्थ
उन्हें मालूम नहीं ।
बिल्ली का रास्ता काटना
गधे का किसी दिशा में चलना
सुगन-पक्षी का कुछ बोलना
कोई सुगन नहीं है
ऐसा मानना कहां है न्याय-संगत ?
इस धरती के
और धरती पर बिखरी
पूरी प्रकृति के
है मालिकाना हक
क्या सिर्फ मनुष्यों के ही ?
नहीं, यह सब हमारा नहीं
इनका और उनका, है सभी का ।
अनुवाद : नीरज दइया