सच की ज़ुबान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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सच की नहीं होती ज़ुबान
वह काट ली जाती है
बहुत पहले-
अहसास होते ही
कि व्यक्ति
किसी न कुसी दिन
सच बोलेगा
किसी बड़े आदमी का राज़ खोलेगा ।
शुभ कर्म का
नहीं होता कोई पथ
जो इस पथ को पहचानते हैं
वे इस पर चलने वाले
हर कदम को रोक देना
शुभ मानते हैं ;
क्योंकि
जो शुभ पथ पर चलेगा
वह अशुभ की पगडण्डियाँ
बन्द करेगा
केवल भगवान से डरेगा।
बच नहीं सकते वे हाथ
जो इमारत बनाते हैं
किसी के भविष्य की ,
जो गढ़ते हैं ऐसा आकार-
जिसकी छवि
आँखों को बाँध ले
जो बोते हैं धरती पर
ऐसे बीज ,
जिनसे पीढ़ियाँ फूलें –फलें ।
जो देते हैं दुलार,
जो बाँटते हैं प्यार,
जो उठते हैं केवल
आशीर्वाद के लिए
जो बढ़ते हैं किसी की रक्षा में
वे काट लिए जाते हैं ;
क्योंकि ऐसा न करने पर
कुकर्म के अनगिन भवन
ढह जाएँगे ,
टूट जाएँगी कई तिलिस्मी मूर्तियाँ ।
तृप्त पीढ़ी रिरियाएगी नहीं
दुलार ,प्यार और आशीर्वाद
की छाया में पले लोग
उनकी खरीद भीड़ नहीं बन सकेंगे ।
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उजाले की खातिर मैं द्वार आया।
शुक्रिया तुमने घर मेरा जलाया ..
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कुछ दु:ख झेलो / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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कुछ दु:ख झेलो
कुछ दु:ख ठेलो
कुछ राम भरोसे छोड़ दो।
दुख क्या बन्धु
बहती नदिया
नहीं एक तट रह पाती है।
जिधर चाहती
मुड जाती है
सुख-दुख बहा ले जाती है।
या धारा के संग तुम
या धारा का मुख मोड़ दो।
पुरानी कमीज़ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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मेरा बेटा
जब कुछ बड़ा हुआ
पहन लेता मेरे जूते
कभी मेरी क़मीज़
चेहरे पर आ जाती चमक
नन्हें पैर - बड़े जूते
छोटा कद , झूलती कमीज़
और खुशी- छूती आसमान ।
जब बराबर कद हो गया,
मेरे जूते और कमीज़
उसके हो गए ।
आज मैंने पहन ली
उसकी पहनी हुई कमीज
थोड़ा चटख रंग वाली
बेटे ने टोका -
‘ये पुरानी कमीज़ है
आपको जचती नहीं’
और अगले दिन ले आया
कीमती नई कमीज़-
‘इसे पहनें
खूब फबेगी आप पर’
वह नहीं चाहता कि
उसका बाप उतरन पहने ।
वह चला गया अब दूर ऽ ऽ ऽ
दूसरे शहर
घर एकदम खाली –सा
लगता है ।
मैंने फिर पहन ली चुपके से
उसकी वही पुरानी कमीज़
जिसके रेशे -रेशे में
बेटे की छुअन रमी है,
उसका स्पन्दन
धड़कता है मेरी शिराओं में
उसके पसीने की गन्ध
महसूस करता हूँ हर साँस में
इस कमीज़ के आगे निर्जीव है
नई कीमती कमीज़ ।
मेरे मन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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मत उदास हो मेरे मन।
जिनको तुम काँटे समझे हो
वे तो प्यारे चन्दन वन ।
जितना पथ तुम चल पाए हो
वह भी क्या कम बतलाओ ।
जितना अब तक बन पाए हो
उस पर तो कुछ हरषाओ
,
तुम मत घबराना / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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दुख के बादल आएँगे ,
छाएँगे , बरसेंगे ।
यह जीवन की रीत है बन्धु
तुम मत घबराना ।
सन्त, महात्मा, राजा, रानी
सबका दौर रहा।
दो पल बीते फिर धरती पर
कहीं न ठौर रहा ।
बिना पंख जो उड़े गगन में
मुँह की खाएँगे ।
आसमान क्या धरती पर भी
ठौर न पाएँगे ।
धूप-छाँव के जीवन में
सदा सुखी है कोई ?
कौन मरण से बच पाया है
हमको बतलाना ।
जो गर्दन पर छुरी चलाकर
माया जोड़ रहे
अपनी किस्मत के घट को वे
खुद ही फोड़ रहे ।
बिस्तर पर वे नोट बिछाकर
क्या पाएँगे चैन
कौन लूट ले या छीन ले
इसमें कटती रैन ।
केवल दो रोटी की भूख
फिर भी हैं हलकान
भूखों तक का कौर छीने
दिखलाते हैMM शान
सदा कामना मेरी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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सदा कामना मेरी-
कुछ अच्छा करने की
सबका दुख हरने की ।
हर फूल खिलाने की
हर शूल हटाने की ।
सदा कामना मेरी -
हरियाली ले आऊँ
खुशहाली दे पाऊँ ।
नेह नीर बरसाऊँ
धरती को सरसाऊँ ।
सदा कामना मेरी-
मैं सबकी पीर हरूँ
आँधी में धीर धरूँ ।
पापों से सदा डरूँ
जीवन में नया करूँ ।
सदा कामना मेरी-
नन्हीं पौध लगाऊँ
सींच-सींच हरसाऊँ ।
अनजाने आँगन को
उपवन –सा महकाऊँ ।
सदा कामना मेरी-
हर मुखड़ा दमक उठे
आँखें सब चमक उठें ।
अधर सभी मुसकएँ
मीठे गीत सुनाएँ ।
उजाले / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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उम्र भर रहते नहीं हैं
संग में सबके उजाले ।
हैसियत पहचानते हैं
ज़िन्दगी के दौर काले ।
तुम थके हो मान लेते-
हैं सफ़र यह ज़िन्दगी का ।
रोकता रस्ता न कोई
प्यार का या बन्दगी का ।
हैं यहीं मुस्कान मन की
हैं यहीं पर दर्द-छाले।
तुम हँसोगे ये अँधेरा ,
दूर होता जाएगा ।
तुम हँसोगे रास्ता भी
गाएगा मुस्कराएगा ।
बैठना मत मोड़ पर तू
दीप देहरी पर जलाले ।
मैं खुश हूँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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मैं बहुत खुश हूँ
मेरे मौला ;क्योंकि-
मेरे पास धन नहीं ;
जिसको रखने के लिए
तिज़ौरी खरीदूँ ,
रातों की नींद लुटाकर
पहरा दूँ ,
जिसके लुट जाने पर
शोक मनाऊँ
आँसू बहाऊँ ।
मैं बहुत खुश हूँ
मेरे मौला ;क्योंकि-
मेरे पास वह
अहंकार नहीं है ,
जिसे ढोने के लिए
गाड़ी खरीदनी पड़े ।
जिस पर खड़े होकर
यह प्यार भरी दुनिया
बौनी दिखाई दे
और मैं खुद को महान्
समझने की हिमाकत कर सकूँ ।
मैं बहुत खुश हूँ
मेरे मौला ;क्योंकि-
मेरे ज़ेहन में सिर्फ़
तेरा अहसास है ,
जो मुझसे कहता है-
रहो इस दुनिया में
इस तरह ,
जैसे कोई रहता हो दुनिया में
अजनबी की तरह ।
कर्मठ गधा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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घोड़ों का क़द ऊँचा है
माना पद भी ऊँचा है ।
गधा नहीं फिर भी कम है
ढोता बोझ नहीं ग़म है ।
घोड़ा रेस जिताता है
कुछ जेबें भर जाता है ।
जो-जो काम गधा करता
घोड़ा कब कर पाता है ।
धीरज का है रूप गधा
नहीं क्रोध में जलता है ।
खा-सूखा खाकर भी
बड़ी मस्ती में चलता है ।
मान-अपमान से परे गधा
कभी नहीं शोक मनाता है ।
अपने ऊँचे मधुर स्वर में
गुण प्रभु के गाता है ।
सुख-दुख से निरपेक्ष गधा
सचमुच सच्चा संन्यासी है ।
जिस हालत में भगवान रखे
वही हालत सुख-राशि है ।
गधा कर्म का पूजक है
सुबह जल्दी उठ जाता है ।
बीवी सोती रहती है
गधा ही चाय बनाता है ।
एसी चैम्बर में घोड़ा
घण्टी खूब बजाता है ।
गधा देर में जब सुनता
तब घोड़ा चिल्लाता है ।
दफ़्तर में जाकर देखो
गधे डटकरके काम करें ।
घोड़ा फ़ाइलों में छुपकर
जब चाहे आराम करे ।
घोड़ा खाता है तर माल
गधा बस पान चबाता है ।
चाहे जितना भी थूके
न पीकदान भर पाता है ।
जिस दिन गधा नहीं होगा
दफ़्तर बन्द हो जाएँगे ।
आरामतलब जो भी घोड़े
सारा बोझ उठाएँगे ।
इसीलिए मैं कहता हूँ-
गर्दभ का सम्मान करो ।
राह-घाट में मिल जाए
कभी न तुम अपमान करो ।
हरियाली के गीत / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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मत काटो तुम ये पेड़
हैं ये लज्जावसन
इस माँ वसुन्धरा के ।
इस संहार के बाद
अशोक की तरह
सचमुच तुम बहुत पछाताओगे ;
बोलो फिर किसकी गोद में
सिर छिपाओगे ?
शीतल छाया
फिर कहाँ से पाओगे ?
कहाँ से पाओगे फिर फल?
कहाँ से मिलेगा ?
सस्य श्यामला को
सींचने वाला जल ?
रेगिस्तानों में
तब्दील हो जाएँगे खेत
बरसेंगे कहाँ से
उमड़-घुमड़कर बादल ?
थके हुए मुसाफ़िर
पाएँगे कहाँ से
श्रमहारी छाया ?
पेड़ों की हत्या करने से
हरियाली के दुश्मनों को
कब सुख मिल पाया ?
यदि चाहते हो –
आसमान से कम बरसे आग
अधिक बरसें बादल ,
खेत न बनें मरुस्थल,
ढकना होगा वसुधा का तन
तभी कम होगी
गाँव –नगर की तपन ।
उगाने होंगे अनगिन पेड़
बचाने होंगे
दिन- रात कटते हरे- भरे वन ।
तभी हर डाल फूलों से महकेगी
फलों से लदकर
नववधू की गर्दन की तरह
झुक जाएगी
नदियाँ खेतों को सींचेंगी
सोना बरसाएँगी
दाना चुगने की होड़ में
चिरैया चहकेगी
अम्बर में उड़कर
हरियाली के गीत गाएगी