रचनाकारः अनिल जनविजय
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
आठों पहर
जगा रहता है
यह शहर
आतुर नदी का प्रवाह
कराहते सागर की लहर
करता है
मुझे प्रमुदित
और बरसाता है
कहर
रूप व राग की भूमि है
कलयुगी सभ्यता का महर
अज़दहा है
राजसत्ता का
कभी अमृत
तो कभी ज़हर
(2000)