आठों पहर
जगा रहता है
यह शहर
आतुर नदी का प्रवाह
कराहते सागर की लहर
करता है
मुझे प्रमुदित
और बरसाता है
कहर
रूप व राग की भूमि है
कलयुगी सभ्यता का महर
अज़दहा है
राजसत्ता का
कभी अमृत
तो कभी ज़हर
(2000)
आठों पहर
जगा रहता है
यह शहर
आतुर नदी का प्रवाह
कराहते सागर की लहर
करता है
मुझे प्रमुदित
और बरसाता है
कहर
रूप व राग की भूमि है
कलयुगी सभ्यता का महर
अज़दहा है
राजसत्ता का
कभी अमृत
तो कभी ज़हर
(2000)