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गोरखधन्धा / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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मीठा - मीठा तुम बोले थे

मन में कपट कटारी थी ।

मूरख बनकर रहे देखते

आदत यही हमारी थी ।

पूँछ हिलाना ,दाँत दिखाना

मर्म सभी पहचाने हम ।

कब काटोगे तुम चुपके से

सारी बाते जानें हम ।

चतुर सुजान समझते खुद को

बहुत बड़ी लाचारी थी ।

मूरख बनकर समझ सके हम

दुनिया का गोरखधन्धा ।

अपनेपन की कपट ओढ़नी

है बहेलिये का फन्दा ।

फन्दे में फँसकर उठी हँसी

सौ खुशियों पर भारी थी ।

न लेकर आये न ले जाना

कैसा शोक मनाएँ हम ।

नहीं बटोरे काँकर ­पाथर

ताला कहाँ लगाएँ हम ।

तुम लुटकरके रातों जागे

हम पर छाई खुमारी थी ।