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नालन्दा और बख़्तयार
वह बौना था मगर बाहें इतनी लम्बी
कि घुटनों के नीचे तक पहुँचते थे उसके हाथ
हौसले इतने उक़ाबी कि एक ही झपट्टे में
बिहार, बंगाल, तिब्बत को हड़प गया एक साथ
हैरत से देखता रह गया था ख़लज़ी दरबार-
एक पागल हाथी को गदा से जख्मी कर
क़ाबू में कर लेनेवाला दुस्साहसी बख़्तियार
ललचायी नज़रें डाल रहा था हिन्दुस्तान पर ....
हत्याओं, लूटपाट और आगज़नी के इतिहास में
नालदा, एक जलता हुआ पन्ना, यूँ भी मिला-
“सोना चाहिए था, बिरहमन, सोना : ये क़िताबें नहीं
अफ़सोस, यह तो ‘मदरसा’ निकला, हम समझे क़िला’ !”
लड़ाई से मुँह फेरकर भाग गए थे कुछ विचारक
घने जंगलों की ओर – केवल कुछ ग्रंथ बचा कर;
वे आज भी भाग रहे उसी तरह, ‘मदरसे’ और ‘किले’ में
फर्क न कर सकनेवाले विजेताओं से घबरा कर !
000 000 000
हिमालय को जीत कर ‘अकेला’ लौटा है बख़्तियार
लखनौती के बज़ारों में स्वागत करतीं छाती पीट पीटकर बेवाएं
आत्मग्लानि की अँधेरी कोठरी में बन्द, शर्म से
दम तोड़तीं एक विजेता की महत्वाकांक्षाएँ .....
कविः कुंवर नारायण
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस