दोहा संख्या 551 से 560
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार ते बकता कलिकाल महुँ।।551।
ब्रह्मग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।552।
बादहिं सूद द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।553।
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भमति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान।554।
श्रुति संमत हरि भगति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।555।
सकल धरम बिपरीत कलि कल्पित कोटि कुपंथ।
पुन्य पराय पहार बन दुरे पुरान सुग्रन्थ।556।
धातुबाद निरूपाधि बर सदगुरू लाभ सुभीत।
देव दरस कलि काल में पोथिन दुरे सभीत।557।
सुर सदननि तीरथ पुरिन निपट कुचालि कुसाज।
मनहुँ मवा से मारि कलि राजत सहित समाज।558।
गोंड गंवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल।
साम न दान न भेद कलि केवल दंड कराल।559।
फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढुक पहार।
कायर कूर कुपूत कलि घर घर सहस डहार।560।