भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 55

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा संख्या 541 से 550


अनुचित उचित बिचारू तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।541।


सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय।542।


सरनागत कहूँ जे तअहिं निज अनहित अनुमानि।
 ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।543।


तुलसी तृन जलकूल को निरबल निपट निकाज।
कै राखै कै सँग चलै बाँह गहे की लाज।544।


रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति।
 तुलसी सठ की को सुनै कलि कुचालि पर प्रीति।545।
 

पात पात केै सींचिबो बरी बरी कै लोन।
तुलसी खोटें चतुरपन कलि डहके कहु को न।546।


प्रीति सगाई सकल बिधि बनिज उपायँ अनेक।
कल बल छल कलि मल मलिन डहकत एकहि एक।547।



दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत ब्यवहार।
स्वारथ सहित सनेह सब रूचि अनुहरत अचार।548।


 चोर चतुर बटमार नट प्रभु भैंडुआ भंड।
सब भच्छक परमारथी कलि सुपंथ पाषंड।549।


असुभ भेष सभूसन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।550।