टूट-टूटकर पिघल रहे हैं
कहीं दूर शिखर
बेआवाज़ / निःशब्द
कोई नहीं जान पाएगा उनके
अन्तस में उपजी पीड़ा को
कोई नहीं जान पाएगा उस समुद्र
की छटपटाहट को जो सिर पटकता
है तट पर बिखरी चट्टानों पर
मगर उसे वापस मझधार में
जाना होता है
लहरें गिनती रहेंगी युग, होता
रहेगा सृजन, घूमती रहेगी पृथ्वी
धुरी पर, छितराए
मेघ-सी बिखरती रहेंगी
संवेदनाएँ कहीं, जूझता रहेगा
स्वत्व देह में घूमते भँवर-सा
भीगती रहेंगी इच्छाएँ सावन में
बौछारों-सी, आते रहेंगे चक्रवात
डोलता रहेगा सागर ज्वारभाटा के
बीच, हिमनद मिलते रहेंगे पहाड़ों से
इसी क्रम में अश्व-सा दौड़ता कालचक्र
शिखरों से टकराकर, पृथ्वी पर
गुज़रकर, लहरों के संग
भागता रहेगा निरन्तर...
कभी-कभी गूँजती रहेगी
एक ध्वनिऽ...ऽ...ऽ... अनहद नाद-सी--
तोड़ना था तो जोड़ा क्यों था ?