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पराई राहें / अज्ञेय

दूर सागर पार
पराए देश की अनजानी राहें ।
पर शीलवान तरुओं की
गुरु, उदार
पहचानी हुई छाँहें ।
छनी हुई धूप की सुनहली कनी को बीन,
तिनके की लघु अनी मनके-सी बींध, गूँथ, फेरती
सुमिरनी,
पूछ बैठी :
कहाँ, पर कहाँ वे ममतामयी बाँहें ?