कलि वर्णन-3
(87)
दमु दुर्गम, दान, दया , मख, कर्म , सुधर्म अधीन सबै धनको।
तप, तीरथ , साधन, जोग, बिरागसों होइ , नहीं दृढ़ता तनको।।
कलिकाल कराल में ‘राम कृपालु’ यहै अवलंबु बडो मनको।।
‘तुलसी’ सब संजमहीन सबै, एक नाम -अधारू सदा जनको।।
(88)
पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की।
रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रहलाद न ध्रुवकी।।
अब जोर जरा जरि गातु गयो, मम मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीके कै ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर आखर दूकी।।