अतिथि सूरज !
तुम कहाँ से आ रहे हो
तुम नहीं लगते
हमारे सूर्यकुल के
अभी भी गहरे धुएँ हैं
उधर पुल के
गुंबदों के
सिरे पर तुम छ रहे हो
ग़लत तिथि पर
धूप का होना अचानक
ख़ुशबुओं के ये तुम्हारे
नए बानक
यों ...
हमारी साँस को भरमा रहे हो
दूर सागर-पार की
महिमा तुम्हारी
हम, इसी से
जल हमारे हुए खारी
मन्त्र उलटे
हर घड़ी तुम गा रहे हो