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निर्द्वन्द्व / मधु शर्मा

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मैं छू कर पाना चाहती हूँ

ठोस इस अंधकार में

रूप, रस और गंध के बरअक्स

एक स्थान

जिसके समय में

कुहनी टेक कर बैठे हैं सपने

और कोई आधार नहीं

उन्हें उठा देने का ।