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ओमर्थज्ञान / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

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ओमनेक बार बोल, प्रेम के प्रयोगी।
है यही अनादि नाद, निर्विकल्प निर्विवाद,
भूलते न पूज्यपाद, वीतराग योगी।
वेद को प्रमाण मान, अर्थ-योजना बखान,
गा रहे गुणी सुजान, साधु स्वर्गभोगी।
ध्यान में धरें विरक्त, भाव से भजें सुभक्त,
त्यागते अघी अशक्त, पोच पाप-रोगी।
शंकरादि नित्य नाम, जो जपे विसार काम,
तो बने विवेक धाम, मुक्ति क्यों न होगी।