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कभी-कभी / रमेश रंजक

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कभी-कभी यह क्या होता है
मुझे लिटा कर—
कान चले जाते हैं कहीं पड़ोस में
सारी रात खड़े रहते हैं ओस में

आँख मूँदता हूँ तो—
मैं ही मैं होता हूँ
छोटा हो जाता हूँ आँखें खोलकर
सारा का सारा इतिहास
चिपक जाता है
मेरे अदना कमरे के भूगोल पर
दृष्टि रेंगती जाती है दीवार पर
देह डूबती जाती है अफ़सोस में
                       कभी-कभी

कभी-की यह क्या होता है
हम होते हैं नहीं
और होते भी हैं
मुझसे ही मेरा यह कैसा
समझौता है ?
जितना तार खींचता हूँ मैं होश का
थोड़ा कहीं टूट जाता है जोश में
                        कभी-कभी