कैसे कोमल कुसुम प्रेम का
रहे स्वर्ण की झोली में?
कैसे सहूँ भार वैभव का
प्रियतम की मृदु बोली में?
कैसे आज भिखारिन ‘राधा’
महलों का देखे सपना
सोते हो सुवर्ण-शय्या पर;
कैसे तुम्हें कहूँ ‘अपना’?
वेश बना धनहीन कृषक का,
सरल श्रमिक-से प्रेमी बन,
महलों का वैभव ठुकराकर
नंगें पाँवों, जीवनधन,
मेरी जीर्ण कुटी तक आओ
अधरों पर मुरली साधे;
मैं कह दू “मेरे मनमोहन!”
तुम कह दो “मेरी राधे!”