(ह्योएल्डर्लिन के प्रति)
फूली डालों के चामर से सहलाये हुए
नदी के अदृश्य गति
गहराते पवित्र पानी को
फिर भँवराते जा रहे हैं
नये जवानों के शोर-भरे जल-खेल।
कोई दूसरा ही किनारा
उजलाते होंगे
अवहेलित लीला-हंस!
फलेंगे तो अलूचे, फूलेंगे तो सूरजमुखी,
पर वह सब अनत, कवि!
यहाँ इस फेंटे हुए मेले में
यहाँ क्या सुनोगे अब? ‘खनकती ऋतु-पंखियाँ’1
या कि काल का अपने को गुँजाता सन्नाटा?
ट्यूबिंगेन, मई, 1976