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तीसरा चरण / अज्ञेय

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(ह्योएल्डर्लिन के प्रति)

फूली डालों के चामर से सहलाये हुए
नदी के अदृश्य गति
गहराते पवित्र पानी को
फिर भँवराते जा रहे हैं
नये जवानों के शोर-भरे जल-खेल।
कोई दूसरा ही किनारा
उजलाते होंगे
अवहेलित लीला-हंस!
फलेंगे तो अलूचे, फूलेंगे तो सूरजमुखी,
पर वह सब अनत, कवि!
यहाँ इस फेंटे हुए मेले में
यहाँ क्या सुनोगे अब? ‘खनकती ऋतु-पंखियाँ’1
या कि काल का अपने को गुँजाता सन्नाटा?

ट्यूबिंगेन, मई, 1976

जर्मन कवि ह्योएल्डर्लिन की एक अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय कविता है हाल्फ़्टेस डेस ले बैंस (जीवन का उत्तरार्द्ध)। इस में कवि शरदकालीन झील में किलोल करते हंस को सम्बोधन कर के अपने अतीत जीवन का उदास स्मरण करता है। (जर्मन कविता का ‘अज्ञेय’ कृत अनुवाद ‘नया प्रतीक’ के जर्मन साहित्य अंक में छपा है, एक अनुवाद संग्रह में भी छप रहा है।) ऋतु-सूचक चरखी की पंखियों की खनक कवि को काल की गति का स्मरण दिलाती है। प्रस्तुत कविता में ह्योएल्डर्लिन की ही शब्दावली का प्रयोग हुआ है; यों पूरी कविता जर्मन कवि की उक्ति पर एक टिप्पणी ही है। वह कविता ट्यूबिंगेन में नेकार नदी पर उसी स्थल के निकट लिखी गयी थी जहाँ ह्योएल्डर्लिन ने अपने पिछले दिन बिताये थे।