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गीत शेष / हरिवंशराय बच्चन

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अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !

क्षीर क्या मेरे बचपन का
और कहाँ जग के परनाले,
इनसे मिलकर दूषित होने
से ऐसा था कौन बचा ले;
             यह था जिससे चरण तुम्हारा
             धो सकता तो मैं न लजाता,
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !

यौवन का वह सावन जिसमें
जो चाहे सब रस बरसा ले,
पर मेरी स्वर्गिक मदिरा को
सोख गये माटी के प्याले,
             अगर कहीं तुम तब आ जाते
             जी-भर पीते,भीग-नहाते,
रस से पावन,हे मनभावन,विधना ने विरचा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !

अब तो जीवन की संध्या में
है मेरी आँखों में पानी
झलक रही है जिसमें निशि की
शंका,दिन की विषम कहानी--
              कर्दम पर पंकज की कलिका,
              मरुस्थल पर मानस जल-कलकल--
लौट नहीं जो आ सकता है अब उसकी चर्चा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !

मरुथल,कर्दम निकट तुम्हारे
जाते,ज़ाहिर है शरमाए
लेकिन मानस-पंकज भी तो
सम्मुख हो सूखे कुम्हलाए;
               नीरस-सरस, अपावन-पावन
               छू न तुम्हें कुछ भी पाता है,
               इतना ही संतोष कि मेरा
               स्वर कुछ साथ दिये जाता है,
गीत छोड़कर साथ तुम्हारे मानव का पहुँचा हीं क्या है !
अब तुमको अर्पित करने को मेरे पास बचा हीं क्या है !