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भ्रमर गीत / सूरदास

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ऊधौ मन ना भये दस-बीस
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥

भ्रमर गीत में सूरदास ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को बर्ज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग और ब्रह्म के ज्ञाता हैं उनका प्रेम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोपियाँ व्याकुल होकर उद्धव से कृष्ण के बारे में बात करती हैं और उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो वे निराकार ब्रह्म और योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोपियाँ उन्हें काले भँवरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब १०० से अधिक पदों का संकलन भ्रमरगीत या उद्धव-संदेश कहलाया जाता है।


कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानाजर्न के लिये गए थे तब उन्हें बर्ज की याद सताती थी। वहाँ उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव रीत-नीति की, निर्गुन ब्रह्म और योग की बातें करता था। तो उन्हें चिन्ता हुई कि यह संसार मात्र विरिक्तयुक्त निर्गुन ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिये विरह और प्रेम की भी आवश्यकता है। और अपने इस मित्र से वे उकताने लगे थे कि यह सदैव कहता है, कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बंधु। वे सोचते इसका सत्य कितना अपूर्ण और भ्रामक है। भला कहाँ यशोदा और नंद जैसे माता-पिता होने का सुख और राधा के साथ बीते पलों का आनंद। और तीनों लोकों में ब्रज के गोप-गोपियों के साथ मिलकर खेलने जैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है कि द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, वे स्वयं सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो कि प्रेम का मर्म ही नहीं समझता, कोरा ब्रह्मज्ञान झाड़ता है।

तबहि उपंगसुत आई गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहिं, भरि भरि अंक लए।।
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हिर पछताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधी होती, बर्ज पठऊं मन आने।।
या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।
सूर ज्ञान याकौ दृढ़ किरके, जुवतिन्ह पास पठाऊं॥2॥

तभी उपंग के पुत्र उद्धव आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।

दोनों सखाओं में खास अन्तर नहीं। उद्धव का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं कि इस मेरे समान रूपवान युवक के पास काश, प्रेमपूर्ण बुद्धि भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं कि क्यों न उद्धव को बर्ज संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा और इसे प्रेम का पाठ गोपियाँ भली भाँति पढ़ा देंगी। तब यह जान सकेगा प्रेम का मर्म।

उधर उद्धव सोचते हैं कि वे विरह में जल रही गोपियों को निगुणर् बर्ह्म के प्रेम की शिक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिक प्रेम से की पीड़ा मुक्ति से मुक्ति दिला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं कि देखते हैं कि कौन किसे क्या सिखा कर आता है।

उद्धव पत्र गोपियों को दे देते हैं और कहते हैं कि कृष्ण ने कहा है कि -

सुनौ गोपी हिर कौ संदेस।
किर समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तिज निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई किर बिरह तरौ तुम, मिले बर्ह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ितं मनु बिन पानी॥3॥

हे गोपियों, हिर का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है कि समाधि लगा कर अपने मन में निगुणर् निराकार बर्ह्म का ध्यान करो। यह अज्ञेय, अविनाशी पूणर् सबके मन में बसा है। वेद पुराण भी यही कहते हैं कि तत्वज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीड़ा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड़ उनके बर्ह्म निराकार रूप की अराधना करो। उद्धव के मुख से अपने प्रिय का उपदेश सुन प्रेममागीर् गोपियाँ व्यथित हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात वे तो बिन पानी पीड़ा के अथाह सागर डूब गईं।

तभी एक भर्मर वहाँ आता है तो बस जली-भुनी गोपियों को मौका मिल जाता है आैर वह उद्धव पर काला भर्मर कह कर खूब कटाक्ष करती हैं।

रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामह,ि का पै लेहिं उधारै॥4॥

गोपियाँ भर्मर के बहाने उद्धव को सुना-सुना कर कहती हैंर् हे भंवरे। तुम अपने मधु पीने में व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहने दो। तुम्हारे इस निरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा चिरंजीवी रहें। तुम स्वयं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो कि अपने शरीर की सुध नहीं रहती आैर इतना मधुरस पी लेते हो कि सनक कर रस के विरुद्ध ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं कि तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें, हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख वाला, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन वार दिया है अब किसी निरगुण पर वारने के लिये तन-मन किससे उधार लें?

उधौ जोग सिखावनि आए।
सृंगी भस्म अथारी मुदर्ा, दै बर्जनाथ पठाए।।
जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौ, कत रस रास खिलाए।
तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।
मुरली शब्द सुनत बन गवनिं, सुत पितगृह बिसराए।
सूरदास संग छांिड स्याम कौ, हमहिं भये पछताए॥5॥

गोपियाँ कहती हैंर् हे सखि! आआे, देखो ये श्याम सुन्दर के सखा उद्धव हमें योग सिखाने आए हैं। स्वयं बर्जनाथ ने इन्हें श्रृंगी, भस्म, अथारी आैर मुदर्ा देकर भेजा है। हमें तो खेद है कि जब श्याम को इन्हें भेजना ही था तो, हमें अदभुत रास का रसमय आनंद क्यों दिया था? जब वे हमें अपने अथरों का रस पिला रहे थे तब ये ज्ञान आैर योग की बातें कहाँ गईं थीं? तब हम श्री कृष्ण की मुरली के स्वरों में सुधबुध खो कर अपने बच्चों आैर पित के घर को भुला दिया करती थीं। श्याम का साथ छोड़ना हमारे भाग्य में था ही तो हमने उनसे प्रेम ही क्यों किया अब हम पछताती हैं।

मधुबनी लोगि को पितयाई।
मुख आैरै अंतरगति आैरै, पितयाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहाँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई॥6॥

कोई गोपी उद्धव पर व्यंग्य करती है।मथुरा के लोगों का कौन विश्वास करे? उनके तो मुख में कुछ आैर मन में कुछ आैर है। तभी तो एक आेर हमें स्नेहिल पत्र लिख कर बना रहे हैं दूसरी आेर उद्धव को जोग के संदेस लेके भेज रहे हैं। जिस तरह से कोयल के बच्चे को कौआ प्रेमभाव से भोजन करा के पालता है आैर बसंत रितु आने पर जब कोयलें कूकती हैं तब वह भी अपनी बिरादरी में जा मिलता है आैर कूकने लगता है। जिस प्रकार भंवरा कमल के पराग को चखने के बाद उसे पूछता तक नहीं। ये सारे काले शरीर वाले एक से हैं, इनसे सम्बंध बनाने से क्या लाभ?

निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर किह समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांिच न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन हवै रहयौ बावरो, सूर सबै मति नासी॥6॥

अब गोपियों ने तकर् कियार् हाँ तो उद्धव यह बताआे कि तुम्हारा यह निगुर्ण किस देश का रहने वाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी-दासी आखिर कौन हैं? कैसा है इस निरगुण का रंग-रूप आैर भेष? किस रस में उसकी रुिच है? यदि तुमने हमसे छल किया तो तुम पाप आैर दंड के भागी होगे। सूरदास कहते हैं कि गोपियों के इस तकर् के आगे उद्धव की बुद्धि कुंद हो गई। आैर वे चुप हो गए। लेकिन गोपियों के व्यंग्य खत्म न हुए वे कहती रहीं -

जोग ठगौरी बर्ज न बिकैहे।
मूरि के पातिन के बदलै, कौ मुक्ताहल देहै।।
यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।
जिन पें तैं लै आए उधौ, तिनहीं के पेट समैंहै।।
दाख छांिड के कटुक निम्बौरी, कौ अपने मुख देहै।
गुन किर मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै॥8॥

हे उद्धव ये तुम्हारी जोग की ठगविद्या, यहाँ बर्ज में नहीं बिकने की। भला मूली के पत्तों के बदले माणक मोती तुम्हें कौन देगा? यह तुम्हारा व्यापार ऐसे ही धरा रह जाएगा। जहाँ से ये जोग की विद्या लाए हो उन्हें ही वापस सिखा दो, यह उन्हीं के लिये उिचत है। यहाँ तो कोई ऐसा बेवकूफ नहीं कि किशमिश छोड़ कर कड़वी निंबौली खाए! हमने तो कृष्ण पर मोहित होकर प्रेम किया है अब तुम्हारे इस निरगुण का निवार्ह हमारे बस का नहीं।

काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ॥9॥

गोपियां चिढ़ कर पूछती हैं कि कहीं तुम्हें कुबजा ने तो नहीं भेजा? जो तुम स्नेह का सीधा साधा रास्ता रोक रहे हो। आैर राजमागर् को निगुणर् के कांटे से अवरुद्ध कर रहे हो! वेद-पुरान, स्मृति आदि गर्ंथ सब छान मारो क्या कहीं भी युवतियों के जोग लेने की बात कही गई है? तुम जरूर कुब्जा के भेजे हुए हो। अब उसे क्या कहें जिसे दूध आैर छाछ में ही अंतर न पता हो। सूरदास कहते हैं कि मूल तो अक्रूर जी ले गए अब क्या गोपियों से ब्याज लेने उद्धव आए हैं?

उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।
इंदर्ी सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहित तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, आैर नहीं जगदीस॥10॥

अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहती हैं। उद्धव हतप्रभ हैं, भक्ति के इस अदभुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके बिना हमारी इंिदर्यां शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीण सी आशा हमें करोड़ों वषर् जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूणर् ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।

गोपी उद्धव संवाद के ऐसे कई कई पद हैं जो कटाक्षों, विरह दशाआें, राधा के विरह आैर निरगुण का पिरहास आैर तकर्-कुतकर् व्यक्त करते हैं। सभी एक से एक उत्तम हैं पर यहाँ सीमा है लेख की।

अंततः गोपियाँ राधा के विरह की दशा बताती हैं, बर्ज के हाल बताती हैं। अंततः उद्धव का निरगुण गोपियों के प्रेममय सगुण पर हावी हो जाता है आैर उद्धव कहते हैं -

अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गहयौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हिर कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उिठ चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ॥11॥

कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम को देख कर उद्धव भाव विभोर होकर कहते हैंर् मेरा मन आश्चयर्चकित है कि मैं आया तो निगुर्ण बर्ह्म का उपदेश लेकर था आैर प्रेममय सगुण का उपासक बन कर जा रहा हूँ। मैं तुम्हें गीता का उपदेश देता रहा, जो तुम्हें छू तक न गया। अपनी अज्ञानता पर लज्जित हूँ कि किसे उपदेश देता रहा जो स्वयं लीलामय हैं। अब समझा कि हिर ने मुझे यहाँ मेरी अज्ञानता का अंत करने भेजा था। तुम लोगों ने मुझे जो स्नेह दिया उसका आभारी हूँ। सूरदास कहते हैं कि उद्धव अपने योग के बेड़े को गोपियों के प्रेम सागर में डुबो के, स्वयं प्रेममागर् अपना मथुरा लौट गए।


इहिं अंतर मधुकर इक आयौ ।
निज स्वभाव अनुसार निकट ह्वै,सुंदर सब्द सुनायौ ॥
पूछन लागीं ताहि गोपिका, कुबिजा तोहिं पठायौ ।
कीधौं सूर स्याम सुंदर कौं, हमै संदेसौ लायौ ॥12॥

(मधुप तुम) कहौ कहाँ तैं आए हौ ।
जानति हौं अनुमान आपनै, तुम जदुनाथ पठाए हौ ॥
वैसेइ बसन, बरन तन सुंदर, वेइ भूषन सजि ल्याए हौ ।
लै सरबसु सँग स्याम सिधारे, अब का पर पहिराए हौ ।
अहो मधुप एकै मन सबकौ, सु तौ उहाँ लै छाए हौ ।
अब यह कौन सयान बहुरि ब्रज, ता कारन उठि धाए हौ ॥
मधुबन की मानिनी मनोहर, तहीं जात जहँ भाये हौ ।
सूर जहाँ लौं स्याम गात हैं , जानि भले करि पाए हौ ॥13॥

रहु रे मधुकर मधु मतवारे ।
कौन काज या निरगुन सौं, चिर जीवहु कान्ह हमारे ॥
लोटत पीत पराग कीच मै, बीच न अंग संम्हारे ।
बारंबार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे ॥
तुम जानत हौ वैसी ग्वारिनि, जैसे कुसुम तिहारे ।
घरी पहर सबहिनि बिरमावत, जेते आवत कारे ॥
सुंदर बदन कमल-दल लोचन, जसुमति नंददुलारे ।
तन मन सूर अरपि रहीं स्यामहिं, का पै लेहिं उघारे ॥14॥

मधुकर हम न होहिं वै बेलि ।
जिन भजि तजि तुम फिरत और रँग, करन कुसुम-रस केलि ॥
बारे तैं बर बारि बनी हैं, अरु पोषी पिय पानि ।
बिनु पिय परस प्रात उठि फूलत, होति सदा हित हानि ॥
ये बेली बिरहीं बृंदावन; उरझी स्याम तमाल ।
प्रेम-पुहुप-रस-बास हमारे, बिलसत मधुप गोपाल ॥
जोग समीर धीर नहिं डोलतिं,रूप डार दृढ़ लागीं ।
सूर पराग न तजहिं हिए तें, श्री गुपाल अनुरागीं ॥15॥