(निराला के मृत शरीर का चित्र देखने पर)
मरा
मैंने गरुड़ देखा,
गगन का अभिमान,
धराशायी,धूलि धूसर,म्लान!
मरा
मैंने सिंह देखा,
दिग्दिगंत दहाड़ जिसकी गूँजती थी,
एक झाड़ी में पड़ा चिर-मूक,
दाढ़ी-दाढ़ चिपका थूक.
मरा
मैंने सर्प देखा,
स्फूर्ति का प्रतिरूप लहरिल,
पड़ा भू पर बना सीधी और निश्चल रेख.
मरे मानव सा कभी मैं
दीन,हीन,मलीन,अस्तंगमितमहिमा,
कहीं कुछ भी नहीं देख पाया.
क्या नहीं है मरण
जीवन पर अवार प्रहार ?--
कुछ नहीं प्रतिकार.
क्या नहीं है मरण
जीवन का महा अपमान ?--
सहन में ही त्राण.
क्या नहीं है मरण ऐसा शत्रु
जिसके साथ,कितना ही सम कर,
निबल निज को मान,
सबको,सदा,
करनी पड़ी उसकी शरण अंगीकार ?--
क्या इसी के लिए मैंने
नित्य गाए गीत,
अंतर में संजोए प्रीति के अंगार,
दी दुर्नीति को डंटकर चुनौती,
गलत जीती बाजियों से
मैं बराबर
हार ही करता गया स्वीकार,--
एक श्रद्धा के भरोसे
न्याय,करुणा,प्रेम--सबके लिए
निर्भर एक ही अज्ञात पर मैं रहा
सहता बुद्धि व्यंग्य प्रहार ?
इस तरह रह
अगर जीवन का जिया कुछ अर्थ,
मरण में मैं मत लगूँ असमर्थ !