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बादल-२ /गुलज़ार

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कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर
                    दस्तक दी, थी
नींद में था मैं --बाहर अभी अँधेरा था!

ये तो कोई वक्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का!
मैंने पर्दा खींच दिया--
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँक मेरे मुँह पर, लेकिन--
मेरी 'सेन्स आफ ह्युमर' भी कुछ नींद में थी--
मैंने उठकर ज़ोर से खिड़की के पट
                     उस पर भेड़ दिए--
और करवट लेकर फिर बिस्तर में डूब गया!

शयद बुरा लगा था उसको--
गुस्से में खिड़की के काँच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वह, दोबारा फिर
                   आयी नहीं -- --
खिड़की पर वह चटखा काँच अभी बाकी है!!