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आईना-१ /गुलज़ार

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ये आइना बोलने लगा है,
मैं जब गुजरता हूँ सीढ़ियों से,
ये बातें करता है--आते जाते में पूछता है
"कहाँ गई वह फतुई तेरी------
ये कोट नेक-टाई तुझपे फबती नहीं, ये
              मनसूई लग रही है--"
ये मेरी सूरत पे नुक्ताचीनी तो ऐसी करता है
जैसे मैं उसका अक्स हूँ--
और वो जायजा ले रहा है मेरा.
"तुम्हारा माथा कुशादा होने लगा है लेकिन,
तुम्हारे 'आइब्रो' सिकुड़ रहे हैं--
तुम्हरी आँखों का फासला कमता जा रहा है--
तुम्हारे माथे की बीच वाली शिकन बहुत गहरी
                      हो गई है--"

कभी कभी बेतकल्लुफी से बुलाकर कहता है!
"यार भोलू------
तुम अपने दफ्तर की मेज़ की दाहिनी तरफ की
दराज में रख के
भूल आये हो मुस्कराहट,
जहाँ पे पोशीदा एक फाइल रखी थी तुमने
वो मुस्कुराहट भी अपने होठों पे चस्पाँ कर लो,"

इस आईने को पलट के दीवार की तरफ भी
                     लगा चुका हूँ--
ये चुप तो हो जाता है मगर फिर भी देखता है--
ये आइना देखता बहुत है!
ये आइना बोलता बहुत है!!