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बुलबुल / हरिवंशराय बच्चन

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सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल !

१.

लिए मादकता का संदेश
फिर मैं कब से जग के बीच ,
कहीं पर कहलाया विक्षिप्त,
कहीं पर कहलाया मैं नीच;
            सुरीले कंठों का अपमान
            जगत् में कर सकता है कौन ?
            स्वयं,लो,प्रकृति उठी है बोल
            विदा कर अपना चिर व्रत मौन.
अरे मिट्टी के पुतलों, आज
सुनो अपने कानो को खोल,
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल !

२.

यही श्यामल नभ का संदेश
रहा जो तारों के संग झूम,
यही उज्ज्वल शशि का संदेश
रहा जो भू के कण-कण चूम,
           यही मलयानिल का संदेश
           रहे जिससे पल्लव-दल डोल,
           यही कलि-कुसुमों का संदेश
           रहे जो गाँठ सुरभि की खोल,
यही ले-ले उठतीं संदेश
सलिल की सहज हिलोरें लोल;
प्रकृति की प्रतिनिधि बनकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !

३.


अरुण हाला से प्याला पूर्ण
ललकता,उत्सुकता के साथ
निकट आया है तेरे आज
सुकोमल मधुबाला के हाथ;
           सुरा-सुषमा का पा यह योग
           यदि नहीं पीने का अरमान,
           भले तू कह अपने को भक्त,
           कहूँगा मैं तुझको पाषाण;
हमे लघु-मानव को क्या लाज,
गए मन मुनि-देवों के मन दोल;
सरसता से संयम की जीत
रही बुलबुल डालों पर बोल !

४.

कहीं दुर्जय देवों का कोप--
कहीं तूफ़ान कहीं भूचाल,
कहीं पर प्रलयकारिणी बाढ़,
कहीं पर सर्वभक्षिनी ज्वाल;
            कहीं दानव के अत्याचार,
            कहीं दीनों की दैन्य पुकार,
            कहीं दुश्चिंताओं के भार
            दबा क्रन्दन करता संसार;
करें,आओ,मिल हम दो चार
जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !