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तीन सपने / विमल राजस्थानी

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---क---

मेरे छवि-जीवन के सपने, मेरे कवि-जीवन के सपने
मेरे पवि-जीवन के सपने
(१)
स्वप्न प्रथम—सरिता का तट था
तट का फेनिल मानस-पट था
देखी मैंने वहाँ रूप-श्री
(शशि-मुख पर लट, कटी पर घट था)
(२)
लेटा था मैं रेणु-सेज पर
निरख रही थी कांति-किन्नरी
रवि-से कवि को, कवि की छवि को
मंत्र-मुग्ध-सी; रूप-रस भरी
(३)
आँखों ही आँखों में हँस कर
मैंने उसकी ओर निहारा
किन्तु अचानक मेरे पौरुष ने—
मोहित कवि को ललकारा
नयन खुल पड़े, किन्तु निमिष में हो आये फिर झपने-झपने
मेरे छवि-जीवन के सपने.

---ख—--

मेरे कवि-जीवन के सपने
(४)
स्वप्न दूसरा—लज्जा आई
कवि ने रण-दुदुंभी बजायी
धर-धर घूम, रसों में डूबी—
हुई नसों में आग लगायी
(५)
कवि के झंडे तले पलक—
मारते राष्ट्र आ खड़ा हो गया
पौरुष भरे स्वरों के बल पर
कवि भी ऊँचा-बड़ा हो गया
(६)
गरजा कवि—‘हम रिक्त-हस्त पर—
कभी न रण से मुहँ मोड़ेंगे
दृग से चिनगारियाँ, साँस के—
हम विष-बुझे वाण छोड़ेगें’
कवि के विप्लव-भाव हो गये सकल राष्ट्र के मन के अपने
मेरे कवि जीवन के सपने.

---ग--—

मेरे पवि जीवन के सपने
(७)
स्वप्न तीसरा—“ कवि ने मेरे
अपने रक्तिम नयन तरेरे
डोल उठा प्रभु का सिंहासन
नभ से तरे टूट गिरे रे
(८)
चकित राष्ट्र देखता—‘जा रही—
अम्बर को कल्पना—‘कुमारी
गरज मेध जय-घोष कर रहे
विद्युत ने आरती उतारी’
(९)
‘चढ़ी कल्पना के पँखों पर
स्वतंत्रता, दृग-ज्योति आ रही
ऋद्धि-सिद्धि, श्री, शांति, मधुरिमा
जय के मंगल-गान गा रहीं’
उछला कवि, दृग खुले, किन्तु कह व्यथा-वहिन् में लगा झुलसने
---‘प्रभु! यदि सच हो पाते सपने
मेरे कवि-जीवन के सपने, मेरे पवि जीवन के सपने’


‘पवि-जीवन’ यहाँ कर्मठ-जीवन के लिए व्यवहृत किया गया है.
--कवि