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ये रात भीगी-भीगी, ये मस्त फ़िजाएँ / शैलेन्द्र

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ये रात भीगी-भीगी ये मस्त फ़िज़ाएँ
उठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा-प्यारा
क्यों आग सी लगा के गुमसुम है चाँदनी
सोने भी नहीं देता मौसम का ये इशारा

इठलाती हवा नीलम सा गगन
कलियों पे ये बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यों बेचैन है दिल
जीवन में न जाने क्या है कमी
क्यों आग सी लगा के ...
ये रात भीगी-भीगी ...

जो दिन के उजाले में न मिला
दिल ढूँढे ऐसे सपने को
इस रात की जगमग में डूबी
मैं ढूँढ रही हूँ अपने को
ये रात भीगी-भीगी ...
क्यों आग सी लगा के ...

ऐसे में कहीं क्या कोई नहीं
भूले से जो हमको याद करे
इक हल्की सी मुस्कान से जो
सपनों का जहाँ आबाद करे
ये रात भीगी-भीगी ...