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शवशय्या / अरविंदसिंह नेकितसिंह

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शव शय्या पर लेटे अजीब सा लगा
क्योंकि था मैं
अस्तित्व की सब से असुखद स्थिति में

-पैर की उँगलियाँ बन्धीं,
नाक-कान बन्द,
न था मेरा ओर्तोपेदिक पलंग,
न ही अपने पसन्द के कपड़े-

फिर भी न जगह कम लगी
न ही करवट लेने की इच्छा जागी
हाँ जागी भी बस
कि एक-दो को भी
संग सुलाऊँ…

वैसे है अनोखी बड़ी यह शय्या
लेटते ही पता चला
हूँ मैं कितना प्यारा
लोगों की ये… लम्बी माला,
गुणों का ये मधुरगान…
आनन्द आया
देख-सुनकर

शव शय्या पर मेरी
हो रही थी बौछार
आँसुओं की

यही न थी
कुछ पैसे भी थे
बेंक में फँसे, महीनों से
मेरा चेक भी था
सालों से मंत्रालय की कबार्ड में पड़ा
और दशकों से रुका हुआ,मेरा प्रमोशन ऑर्डर