अपने परिवार की तपती आत्माओं को
अपनी दिशाहीन नाव में लिए
किसी किनारे की तलाश में
चला जा रहा था मैं, अनिश्चित सा
फिर तू आया
तेरे वादों में एक सहारा नज़र आया
राहत की उम्मीद में
सोंप दी मैं ने नाव अपनी तुमको
और बहलाए दिल को लिए
बैठ गया
निर्विवाद, निश्चेष्ट, निष्क्रीय
फिर मझधार में देखा तो
तू नहीं था
किसी बड़े जहाज़ को चलाने में
तू व्यस्त था
सीने में सिकुड़ते दिल को एहसास हुआ
बदबुदार थे तेरे वादे, पर…
तुम से निराशा के सिवा कुछ और भी मिला
इतना अनुभव तो मिल ही गया
कि मैं बड़ा हुआ
इतना बड़ा कि मैं समझ सकूँ
सरकार राजनीतिज्ञों को
सोंपने की वस्तु नहीं