आसमां
जहाँ तक देखो
बस एक सा दिखता है
कहीं वो ख़ाने
नहीं हैं इसमें
जिनमें कि ये बँटा हो
कोई लकीर नहीं है
कोई पाला भी नहीं है
कि जिससे साबित हो सके
इधर का हिस्सा हमारा
उधर का तुम्हारा।
भरी आँखों तक
बस
एक सा दिखता है।
ये दौरे-खि़रद की गुस्ताखि़याँ
नहीं तो क्या है,
आसमां में हिस्सेदारी
तय हो रही है
ख़ुदा की अमानत में
ख़यानत हो रही है।
...वाह रे! सियासतदानो
ये कैसी सियासत है
ये कैसा फिक्रो-अमल है।