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तुम्हारी तरह / पवन कुमार

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हवा जो
छू के
गुज’रती है
मुझे
उसमें खुश्बू बसी है
तुम्हारी तरह।
ये नदिया जो बहती है
इसमें
इक सादगी है
तुम्हारी तरह।
रंग धानी है हरसू
बिखरा हुआ
इस ज’मीं का है
ये
पैरहन है
तुम्हारी तरह।
बे मक’सद हैं
राहें यहाँ की सभी
मगर
चलती जातीं हैं
तुम्हारी तरह।
दिन को लोरी सुना के
सुलाते हुए
रात जाग जाती है बस
तुम्हारी तरह।
और भी बहुत कुछ है
तुम्हारी तरह
किसी ने तो खींचे हैं
तुम्हारे ही नक़्श
इन
फि’ज़ाओं में।