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गूजरी / पद्मा सचदेव

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मन की निर्मल तन की उजरी
ये मेरे शहर की गूजरी
धूप की तरह ये ढल आती
साँसों की तरह ये चढ़ आती
ऊँचे-ऊँचे कठिन ये पर्वत
गूजरी के बर्तनों में भरा है
विधना द्वारा निकाला हुआ शर्बत
इसके क़दम-क़दम के बोझ से
ऊँचे पर्वत को सुख लगता
पैरों से ये दबा देती है
उसका कसा हुआ स्वस्थ बदन सा
कहीं-कहीं छलक जाते हैं दूध के बर्तन
घूँघरू इसके बटनों के छिड़ जाते तो लौ होती है
थककर इसका इसका मुँह कहता तो दिन चढ़ जाता
इस गूजरी ने कसे-कसाये तन के साथ
बर्तन यूँ सिर पर रखे हैं
जैसे नाग उठाए सिर पर धरती सारी
गेंद की तरह पहाड़ों से उतरती है गूजरी
घी में बसी हुई बालों की मींडीयाँ
हिल-हिलकर चौक रही हैं
तवी दरिया में पहुँच मुँह को मारे छट्टे
उपर उठाती मगजी वाली काली सुत्थन
तवी से बचती जाती है
दूध बेचकर भाव कर रही घुँघरुओं का
काले हरे कुंडलुओं का.