Last modified on 15 जून 2013, at 06:36

साजिन्दे / बसंत त्रिपाठी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:36, 15 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बसंत त्रिपाठी }} {{KKCatKavita}} <poem> साजिंदे ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

साजिंदे बजाओ साज
कि धुनें शोर में गुम हो रहीं
गीतों की पंक्ति से सन्नाटा रिसता है
जीवन की गति में जीवन ही घिसता है
साजिंदे,
बजाओ साज कि कसावट की कोई
आवाज उभरे

रात यह काली और दिन सुफेद
रातों के उजाड़ में दिन सखेद
होते हैं बेबस, जाते हैं बिखर-बिखर
साजिंदे, बजाओ साज
कि रंगों का कोई मोल उभरे