गगन देखता हो प्रसन्न
बारिश के शीशे से
कभी झमझम मुटाता
तो कभी झिहिर झिहिर पतराता शीशा।
हमारी ही भीत धँसती बढ़ रहे जल के जोर से
हमारे ही पेट कटते, खेत फटते लौट रहे मेघों के पुच्छ-प्रहार से
और हम ही चुनने उतरते आँगन में जल हो रहीं बर्फ की गोलियाँ।