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सर्जना / रविकान्त

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वह मैं नहीं
मेरी कृति भी नहीं है
जुड़ा हूँ उससे अदृश्य नाभिसूत्र
पछाड़ती, सुखाती है
बार-बार
अपने जैसा देखती है
पुकारती है मुझे
पुच्कारती है

निर्मल है
मारक है उस चिर-कन्यका की पुकार
नित ही आहत होने को विवश
मैं कहीं भाग सकता हूँ?!

मुरझाई हुए भक्ति का अकूत शब्द-भंडार है
उसके पास,
किसी पग-रेखा की धूल-सी शांत वह
अपनी नदी को निरखने वाली नाविका है

मेरी ईर्ष्यालु जननी वह नहीं
पर मुझे रचती है
अपने सुर में साधते हुए

क्या कहूँ उसे?
प्रेयसी ! ?