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मुझे अपना तो क्या, मेरा पता देता नहीं कोई / निश्तर ख़ानक़ाही

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मुझे अपना तो क्या, मेरा पता देता नहीं कोई
भटकता हूँ घने वन में, सदा देता नहीं कोई

बता ऐ शहरे-नाशुक्राँ*, ये क्या तर्ज़-गदाई* है
तलब करते हैं सब, लेकिन दुआ देता नहीं कोई

यहाँ ज़ालिम जुईफ़ों से सहारे छीन लेते हैं
यहाँ कमज़ोर बाहों को असा* देता नहीं कोई

ख़ुदा जाने कहाँ होंगे वो मुशाफ़िक़* दामनों वाले
तपिश* सहता हूँ, दामन की हवा देता नहीं कोई

मेरे माथे के धब्बों पर ये दुनिया तन्ज़ करती है
मगर हाथों में मेरे आइना देता नहीं कोई

अब अक्सर सोचता हूँ मेरा मर जाना ही बेहतर है
कि बिमारी में ज़िद करके दवा देता नहीं कोई



1- शहरे-नाशुक्राँ--एहसान न मानने वालों का शहर

2- तर्ज़-गदाई--भीख लेने का ढंग

3- असा--छड़ी

4- मुशाफ़िक़--प्रेमपूर्ण

5- तपिश--तपन