मेरी माँ के जमाने में
औरतों की होती थी
नन्हीं दुनिया
जहाँ वे रोज
अचार, पापड़ बनाते हुए
झाँक लेती थी आह भर
आसमां का छोटा-सा टुकड़ा
नहीं कल्पना करती थीं उड़ने की
खुश थीं वे
सोने-चांदी के बिछुए पहन
उन्हें भाता था
आँगन मे लगा तुलसी का पौधा
बर्तनों को
बड़े लाड-प्यार से
पोंछकर रखती थीं
गोया कि वे उनके बच्चे हों
आँगन की देहरी तक था
उनका दायरा
पिता, चाचा, ताऊ, पड़ोसी की
निगाह में
वे अच्छी पत्नी, अच्छी औरत थीं
एक दिन उसने
बोझ से दबी अपनी कमर
कर ली सीधी
अचानक
उसके स्वर में आयी थी गुर्राहट:
क्यों? आखिर मैं ही क्यों?
आखिर कब तक चलेगी
गाड़ी एक पहिये पर?
उस दिन मेरी मां के अन्दर
मेरे ज़माने की औरत ने
जन्म लिया...
मेरे ज़माने की औरतें
कसमसाती है
झगड़ती हैं, चिल्लाती हैं
पर बेड़ियाँ नहीं तोड़ पाती है
कमा-कमा कर
दोहरी हुई जाती हैं
उधार के पंख लगा, इधर से उधर
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर
फिर लौट आती हैं अपने डेरे में
पर मेरी बेटी
जो हम सबके भविष्य की
सुनहरी नींव है
जो जन्म घुट्टी में सीख रही है
सवाल करना
कब से? क्यों? कैसे? किसका?
मुझे पता है
वो हालत बदल देगी
उसमें है वो जज्बा
लड़ने का, बराबरी करने का
क्योंकि उसे पता है
संगठन, एकता का रहस्य