संभव / अनिता भारती

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क्या ये संभव है
हम और तुम दोनों
जिये एक ऐसे रिश्ते में
न जिसमें
तुम रहो एक पुरुष
और न ही मैं औरत
दोनों
अपने अस्तित्व से परे
रहे बस बनकर
घनिष्ठ दोस्त
या फिर दो पक्की सहेलियाँ

तुम्हारी-मेरी बातें ऐसी हों
जिसमें
न शर्मिंदा हो जायें हम
कभी एक-दूसरे के सामने
और न हो जायें कभी
विचलित-विगलित
माँस के लोंदे की तरह

रहे सहज
हँसते बतियाते
खिलखिलाते
यूँ ही घास में लेटे
गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए
या फिर चिलचिलाती गर्मी में
किसी पेड़ की छाया तले
पसीने से तरबतर शरीर पर
शीतल हवा के झोंके
पीते हुए
किसी सड़क किनारे
छोटे से लिपे-पुते ढाबे पर
काँच के गिलास में
चाय की चुस्की लेते हुए
रहे सदा एक-दूसरे के साथ
मन में प्रगाढ़ विश्वास लिए

क्या ये संभव है?
अगर ये संभव है
तो आओ,
मर्द औरत की सारी परिभाषाएँ
ध्वस्त कर दें
जिसमें न तुम हो पुरुष
न ही मैं औरत
बस हम रहे महज इंसान।

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