दोस्त, तुम्हारी तरह
मैं कैसे कहूँ, कि
जिंदगी रेत-सी हाथों से
फिसल गई…
मेरे हाथों में तो
जिंदगी कभी आई ही न थी!
वो तो बस यूँ ही
दूर-दूर से छलती रही...
प्यास मेरी ही पागल थी,
जो रेत में बूँद होने का
भ्रम पाले रही!
दोस्त, तुम्हारी तरह
मैं कैसे कहूँ, कि
जिंदगी रेत-सी हाथों से
फिसल गई…
मेरे हाथों में तो
जिंदगी कभी आई ही न थी!
वो तो बस यूँ ही
दूर-दूर से छलती रही...
प्यास मेरी ही पागल थी,
जो रेत में बूँद होने का
भ्रम पाले रही!