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प्यास / उमा अर्पिता

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दोस्त, तुम्हारी तरह
मैं कैसे कहूँ, कि
जिंदगी रेत-सी हाथों से
फिसल गई…

मेरे हाथों में तो
जिंदगी कभी आई ही न थी!
वो तो बस यूँ ही
दूर-दूर से छलती रही...

प्यास मेरी ही पागल थी,
जो रेत में बूँद होने का
भ्रम पाले रही!