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प्रतिशोध / उमा अर्पिता

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बचपन की
कड़वी यादों के सिलसिले
आज भी/बिसरे तो नहीं हैं…
बहुत-बहुत ताजा हैं
अभी खिले किसी फूल से...!

कहाँ भूले हैं
बाप की मार से
माँ के गालों पर उभरे/
आँसुओं से धुलते निशान...

सहमा/डरा बचपन
भयभीत आँखें/घुटी-घुटी साँसें
उन सिसकियों की परिभाषा
जानती तो नहीं थी, पर
भीतर तक कहीं कुछ
खुबता जरूर था…
किसी पैने धारदार छुरे-सा...!

जानते हो मेरा पिता कोई
शराबी, जुआरी नहीं, बल्कि
एक सभ्य इंसान है
और इसी सभ्य दुनिया के
क्रूर आचरण मेरे भीतर
दिन-प्रतिदिन
एक चिंगारी बोते रहे…

माँ पर बरसते पिता की
चिल्लाहट के बीच
मेरा बचपन अधमरा
हो गया था, और तभी
मेरे भीतर से उभरी थी एक चीख,
जो अंततः विद्रोह का लावा बन
फूट निकली…
औरत-मर्द के संबंधों की परिभाषा
मेरे लिए कभी मधुर नहीं थी...!

आज-- तुम्हारा प्यार
पाने के बाद भी
मेरे भीतर का डर मुझे
सहज होकर जीने नहीं देता!
आज मैं अपनी माँ का बदला
शायद तुमसे लेना चाहती हूँ!

जानती हूँ/यह गलत है
और मेरी यह गलती
मेरे बच्चों के बचपन को
बचपन न रहने देगी…!
लेकिन मेरा अपने आपको
गलत होने से रोकना भी
मुझे असहज कर देता है, और
असहजताओं के बीच जीना
बड़ा दुष्कर होता है, दोस्त!

बहुत मन चाहता है कि
तुम मेरे सिर को
सहलाते रहो/तब तक
जब तक मैं सो न जाऊँ!
लगता है एक भयमुक्त नींद
मुझे सहज कर सकेगी, और
तुम्हारी आँखों के अपनेपन में
धो सकूँगी--
बचपन की कड़वी यादों को
और दुलार सकूँगी
अपने बच्चों को
उसी स्नेह के साथ
जिसकी आवश्यकता को कभी
मैंने महसूसा था!
कहो दोस्त--
क्या तुम मुझे
समझ सकोगे?